Wednesday, August 20, 2014

जीवन का तज़ुर्बा

वो बन कर बिखर कर फिर सवंरा है
गर्दिशों में खोकर फिर चमका है 
वो बहक कर गिर कर यूँ संभला है 
बंधनो से खुल कर उड़ कर कुछ निखरा है 
उसने दुःख में भी पाया और सुख में भी खोया है 
ज़िन्दगी के हर पहलु को कई नज़रियों से देखा है 
वो हर मोड़ पर भटक कर यहाँ पहुंचा है 
तुम कहते हो इसे बुढ़ापा 
वो कहता इसे जीवन का तज़ुर्बा  है । 



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