Thursday, July 20, 2017

पत्थर की इमारते और पत्थर हुआ इंसान।
कृत्रिम चेहरे पर बोझिल सी मुस्कान।
सर झुका मोबाइल पर हुआ दुनिया का अपमान ।
डिजिटल संसार में खो गई अपनी ही पहचान।

लाइक्स और कमेंट में तोला जाने लगा सम्मान।
इंटरनेट से मिल रहा अब  सारा ज्ञान।
धर्म पर लड़ कर बन रही  झूठी शान।
समझ है पूरे जगत की पर स्वतः सेअनजान ।

हर किसी पर कस रही सोशल मीडिया की लगाम
पर इस बात का कोई भी न जाने अंजाम।









मक्खियाँ मारना - निकम्मे रहकर समय बिताना

मक्खियाँ मारना -हमेशा से ही इन दो शब्दों को या मुहावरे को निक्कमेपन से जोड़ा गया है।  
मक्खियाँ मारना भी एक प्रतिभा सिद्ध होगी या कभी आय का साधन होगी ,इस बात पर कभी गौर नहीं किया था  |शायद मूल विचारो के साथ साथ मुहावरे भी अर्थ बदल रहे है | 
एक दोपहर जब मन बहुत ऊब रहा था तो सोचा बाहर जाकर लंच किया जाए | उचाट चित को आजकल लजीज भोजन से ही तो समझाया जाता है | किताब पड़ना या रचनात्मक कार्य से मन को बहलाना  इतना प्रचलन में अब कहा रह गया है  | बहुत से लोगो ने अपने रूठे हुए मन को मानाने के लिए आज एक ही रेस्टोरेंट का चयन किया था। सस्वदिष्ट पकवान और  डिस्काउंट विरले ही साथ मिलते है । 
सामने बैठी लड़की को फोटो खींचता देख भी जब मुझे सेल्फी लेने की चाह नहीं हुई तो समझ में आया आज वाकई कुछ खिन्नता है   | भला हो ऐसे संकेत का  अन्यथा मोबाइल ,लैपटॉप का यह दौर  स्वयं के विचारो को समझने का समय ही कहा देता  है.| 
उस जगह के फैशन और चमक में मैं खोने ही वाली थी की  अचानक नज़र बाहर खड़े एक कर्मचारी पर पड़ी | पहली नज़र में तो मुझे वह उस रेस्टोरेंट के अन्य कर्मचारियों  के समान लगा ।पर  थोड़ा और  ध्यान देते ही   मेरे मुख पर अपनेआप ही  हलकी सी मुस्कान आ गई|  वह व्यक्ति केवल मखियाँ मारने के लिए बहार खड़ा किया गया था। 
वैसे तो किसी भी काम की अवमानना करना मैं सही नहीं मानती पर इस दृश्य से विचारो का एक मजाकिया सा द्वंद हुआ और बचपन का मिथक टूट गया।