Saturday, December 24, 2011

ज़िन्दगी खुद से ही जुदा हो रही कुछ ऐसे
चांदनी चाँद से खफा हो रही हो जैसे |
जो ख्वाबो में ही खुद से जुड़ा करती थी कभी
वो क्यूँ खुली आँखों से खोने लगी है अभी |

जिन जवाबो को तयार खड़े रखा था
सवाल उनके ही अब धूद्लाने लगे |
इस अकेले रस्ते पर चलते हुए
कुछ लोग  अब रास आने लगे |


पलकों की इस मुंडेर से
सपनो की चिडिया क्यूँ  उड़ाने लगे |
किसी बहाने से
इन आंसुओं को क्यूँ  छुपाने लगे |

नखरो की इस भाषा में
प्यार को क्यूँ  खोने लगे |
सिसकियो को नहीं समझे क्यूँ
और उन मुस्कुराहटो में बहने लगे |

तमन्नाओ के इस भवर में
अपेक्षाओ को क्यूँ  भूलने लगे |
अशाओ के इस समंदर में
निराशाओ को क्यूँ  खोजने लगे |


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