Saturday, June 13, 2009

एक बचपन

अपने ही नैराश्य की

नौका में सवार होकर



नेत्रों से बहने वाले जल

को अश्रु का नाम देकर



आज ही तो समझा है अपने मन के दुर्बल्य को

आज ही तो मिल पाया है एक बचपन को



एक बचपन जो लुप्त हो रहा है घने अंधकार में

एक निश्छल सा बचपन जिसे छला संसार ने



वह आदर करता उनके प्रेम का

वह सह लेता उनके क्रोध को

पर कैसे समझे उनकी उदासीनता को



उसने जाना दंड को त्रुटी से पहले

उसने देखा अंधकार को उजाले से पहले

उसने समझा मुत्य को जीवन से पहले



एक बचपन जो तरसा

माँ के दुलार को

पिता की फटकार को

संसार के व्यवहार को



पर फ़िर भी न भूला अपनी

उस भोली मुस्कान को ।

2 comments:

  1. don't tell me you wrote this ...it is awesome yaar ... never knew you were so good.

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