अपने ही नैराश्य की
नौका में सवार होकर
नेत्रों से बहने वाले जल
को अश्रु का नाम देकर
आज ही तो समझा है अपने मन के दुर्बल्य को
आज ही तो मिल पाया है एक बचपन को
एक बचपन जो लुप्त हो रहा है घने अंधकार में
एक निश्छल सा बचपन जिसे छला संसार ने
वह आदर करता उनके प्रेम का
वह सह लेता उनके क्रोध को
पर कैसे समझे उनकी उदासीनता को
उसने जाना दंड को त्रुटी से पहले
उसने देखा अंधकार को उजाले से पहले
उसने समझा मुत्य को जीवन से पहले
एक बचपन जो तरसा
माँ के दुलार को
पिता की फटकार को
संसार के व्यवहार को
पर फ़िर भी न भूला अपनी
उस भोली मुस्कान को ।
really nice yaar.......
ReplyDeletedon't tell me you wrote this ...it is awesome yaar ... never knew you were so good.
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