Thursday, February 25, 2010

परिवर्तन

जीवन रूपी पौधे के

लिए नीर हूँ मैं ।

धूप में चलते पथिक के

लिए छाँव हूँ मैं ।

अनिवार्य हूँ सफलता के लिए

पर कभी संगी हूँ दुःख का भी ।

मैं परिवर्तन हूँ।

मेरी अनुपस्थिति से

भावशून्य है जग सारा ।

मैं कारण हूँ चिंता का

तो कभी प्रेरणा हूँ श्रम की।

मुझसे अस्तित्व है

सुख का भी और दुःख का भी ।

शक्ति हूँ आशा को निराशा में,

पराजय को विजय में परिवर्तित करने की ।

और विवशता हूँ स्वत: को

ही परिवर्तित न कर सकने की ।

मैं विरोधी हूँ स्थिरता का

पर मैं स्वयं ही स्थिर हूँ।

मैं परिवर्तन हूँ ।

Tuesday, February 16, 2010

"मेरा जीवन एक सपाट ,समतल मैदान है, जिसमे कही-कही गड्ढे तो हैं,पर टीलों,पर्वतो ,घने जंगलो ,गहरी घाटियो और खंडहरों का स्थान नहीं है । जो सज्जन पहाड़ो की सैर के शौक़ीन है ,उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी ।
"

प्रेमचंद