जो स्वयं से ही अज्ञात है ।
जो खोया है अपने ही उन्माद में ।
जो उड़ रहा है अपने ही स्वपन के आकाश में ।
जो शांत है चद्रमा सा कभी ।
तो चचल है लहरों सा कभी ।
जो आहत है तीक्षण शब्दों से ।
तो प्रफुल्लित है एक मीठी वाड़ी से ।
मै अभिलाषा हू उस मन की ।
मैं अभिलाषा हूँ एक कराहती हुई वृक्ष की डाली
को पुनः प्रवर्तन करने की ।
मैं अभिलाषा हू उन बिखरते हुए मोतियो को
एक माला में पिरोने की ।
मै अभिलाषा हू शोकार्त जीवन में रस भरने की।
मैं अभिलाषा हूँ जनजीवन की खुशहाली की।
मैं अभिलाषा हूँ परिवर्तन को समझने की।
मैं दूर हूँ आडम्बर से ,स्वार्थ से, कृत्रिमता से।
मैं स्वछन्द हूँ,निर्भय हूँ ,अपरिमित हूँ।
मैं स्वच्छ हूँ ,निर्मल हूँ,निष्कपट हूँ।
मैं अभिलाषा हूँ एक मन की जो
अनभिज्ञ है की मैं अभिन्न हूँ उस मन से ।